ज्ञान तो ज्ञान है चाहे वो परंपरागत (traditional) या आधुनिक (modern), दोनों का सम्मान होना चाहिए. परंपरागत (traditional) हजारों वर्षों के अनुभव से जनित और पोषित है जबकि आधुनिक (modern) ज्ञान, विज्ञान और शोध का परिणाम है और उसी से प्रेरित और पोषित भी.
परंपरागत (traditional) ज्ञान की समस्या है कि वो एक समय के बाद static या stagnate हो जाता है अर्थात उसका विकास रुक जाता है, और दूसरी दिक्कत है कि कुछ अज्ञानी लोगों और निहित स्वार्थी (vested interest) लोगों ने अपने परंपरागत ज्ञान को अंतिम सच मान लिया, उसकी जाँच या उस पर अन्वेषण नहीं होने दिया, लिहाजा वो आधुनिक विज्ञान आधारित ज्ञान के सामने धराशाही हो गया, उसे पिछड़ा हुआ मानकर दुत्कारा जाने लगा.
सिल्कियारा सुरंग के मामले में परंपरागत (traditional) या आधुनिक (modern) ज्ञान के साथ साथ हमारी धार्मिक आस्था और मान्यताओं के समन्वय ने 17 दिन बाद, सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को सकुशल बाहर निकालने में सहायता की. आधुनिक मशीनों के साथ साथ, परंपरागत खनन विशेषज्ञों (rat miner- जो चूहे की तरह बिल बनाने के ज्ञानी हैं) ने; दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद.
उत्तराखण्ड में ये जो विकास का लुटेरा मॉडल विकसित हुआ है, ये चौड़ी सडकों और पहाड़ के भीतर से चूहे की तरह बिल बनाकर तेजी से भागने का सपना दिखाने की कुटिल चाल चली हुई है, वह एक तरफ हमारी धार्मिक आस्था, विश्वास और परंपरागत ज्ञान को नकारने का, उसे ठेस पहुँचाने की साजिश है तो दूसरी तरह आधुनिक तकनीकि की आड़ में, हिमालय को नुकसान पहुंचाकर, आर्थिक भ्रस्ट्राचार का जीता जाता नमूना है.
धारी देवी मंदिर और बाबा बागनाथ मंदिर मेरी धार्मिक आस्था के केंद्र हैं, इसके अतिरिक्त बाबा केदारनाथ और भगवान् बद्री विशाल में हमारी अटूट आस्था है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, जिस प्रकार से आधुनिकता के नाम पर, पुनर्निर्माण (redevelopment) के नाम पर, हजारों छोटे मोटे मंदिरों को नुकसान पहुँचाया गया है, वह सिर्फ आस्था के साथ छेड़-छाड़ नहीं है बल्कि इस छेड़ छाड़ की आड़ में, हिमालय की कितनी मिटटी, जैव विविधता को नुकसान हुआ है, कितने आर्थिक संसाधनों को लूटा गया है, उसका संभवतः आंकलन लगभग असंभव है.
मुझे नहीं मालूम कि जो केदारनाथ में आपदा आई थी क्या उसका धारी देवी मंदिर से की गई छेड़ छाड़ से कोई सम्बन्ध था या सिल्कियारा में जो सुरंग दुर्घटना हुई उसका भगवान् बागनाथ मंदिर से हुई छेड़ छाड़ से कोई सीधा सम्बन्ध था लेकिन यह सच है कि इन दोनों मामलों में परंपरागत ज्ञान (हिमालय, भंगुर है, नाजुक है, इसको ज्यादा मत छेड़ों) की अनदेखी हुई है और इस अनदेखी का सीधा सम्बन्ध पैसे की लूट से है.
ईश्वर की कृपा से 41 मजदूर सकुशल बाहर आ गये हैं, लेकिन क्या अब कुछ दिन तक, हिमालय की छाती को छलनी करने की इस कुटिल नीति को रोका जायेगा, इसके औचित्य पर बहस होगी, क्या परंपरागत ज्ञान और आस्था का सम्मान किया जायेगा?
ये कुछ गूढ प्रश्न है, उत्तराखंड के राजनीतिक नेतृत्व से अपेक्षा है कि वह गुजराती-हैदराबादी-महाराष्ट्री ठेकेदारों के आगे नतमस्तक न होते हुए, हिमालय की धरती से जन्में भूवैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, धामिक विद्वानों, नीतिशास्त्रियों, समाज और संस्कृति विशेषज्ञों, के साथ खुली चर्चा करके, राज्य के लिए नए, विकास मॉडल पर चर्चा शुरू करेगा.
विकास का मॉडल सिर्फ सड़क या सुरंग बनाने का नहीं, बल्कि जल स्रोतों की वर्तमान स्थिति, मानव-वन्य जीव संघर्ष, कृषि, बागवानी, वनों की स्थिति, पशुपालन, स्वास्थ्य, आदि पर भी स्थानीय विशेषज्ञों के साथ खुली चर्चा हो, निसंदेह आधुनिक विज्ञान और तकनीकि को भी इसके साथ जोड़कर रखा जाये लेकिन चमोली गढ़वाल में कोदा (मंडुआ) कैसे उगाया जाना है, कृपया उसके लिए किसी मेकेंजी जैसी विदेशी कम्पनी को आगे करके, राज्य के संसाधन लूटने का प्रपंच मत रचिए.
भगवान केदारनाथ को शांति के साथ, बर्फ के बीच अपने चरों के साथ, स्वतन्त्र और स्वछन्द रहने दीजिए, भगवान शिव तो निर्माता और विध्वंशक दोनों हैं, उन्हें अगर स्वर्णजडित महल में रहने की इच्छा होती तो वो खुद के लिए बनाने की क्षमता रखते हैं उसके किसी गुजराती ठेकेदार की जरूरत नहीं है.
पर क्या हमारे सांसदों को, इस विषय का कोई ज्ञान है?
क्या हमारे मंत्री मंडल को इस का आभास है?
क्या उत्तराखण्ड का राजनीतिक नेतृत्व (एक दो अपवाद को छोड़कर) इतना गहरा सोचने का ज्ञान और क्षमता रखता है?
बस यही जानने के लिए मैंने, पौड़ी लोकसभा क्षेत्र के, वर्तमान सांसद, पूर्व सांसद, सांसद का चुनाव लड़ने के इच्छुक नेताओं को शास्त्रार्थ की चुनौती दी है.