Home उत्तराखंड शिव कैलाश से जुड़ी है फूलदेई त्यौहार की गाथा

शिव कैलाश से जुड़ी है फूलदेई त्यौहार की गाथा

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फूलदेई त्यौहार को फूल संग्राद भी कहा जाता है। यह उत्तराखण्ड का एक प्रमुख लोकपर्व है। यह त्यौहार चैत माह के आगमन पर मनाया जाता है। फूलदेई प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है। फूलदेई चैत के महीने की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है। सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं। उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं। तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है।

छोटे बच्चों का पर्व

ये त्योहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है। छोटे-छोटे बच्चे इस दौरान एक गाना भी गाते है- फूलदेई, छम्मा देई…जतुकै देला, उतुकै सही…दैणी द्वार, भर भकार। फूलदेई के दिन बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड, हिसर बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को रिंगाल टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं। इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं।

.भगवान शिव से जुड़ा है फूलदेई

पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे। ऋतू परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी। माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई बर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये। आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली। कविलास में सर्वप्रथम फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया। फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लाये जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए। सबने ऐसा हिी किया और फूल सबसे पहले शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये। जिसे फुलदेई कहा गया।

सभी ने एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहा- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज! शिव की तंद्रा टूटी लेकिन बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न होकर इस त्यौहार में शामिल हुए।

ऐसा माना जाता है कि तब से पहाडो में फुलदेई त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा। इस आज भी छोटे-छोटे बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं।

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