प्रमोद शाह
इस वर्ष जब हम दीपावली मना रहे थे,तब 31 अक्टूबर से 12 नवंबर के मध्य तब ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर जब दुनिया के 120 देश 26 वी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन में भाग ले रहे हैं, तब दुनिया के चारों ओर प्रकृति चोट कर अपने रंग दिखा रही है दूसरे शब्दों में संभल जाने के लिए चेता रही है।
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है की जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर वैश्विक चेतना जो कि वर्ष 1997 में क्योटो घोषणा के रूप में सामने आई, वह तब से सिर्फ एक आदर्श प्रक्रिया अथवा आश्वासन से अधिक कुछ साबित नहीं हुई, जिसके संकल्पों से विश्व समुदाय लगातार अपने आप को पीछे रखते रहा है ।
सम्मेलन के नाम पर चाहे वह रियो की घोषणा हो या कोपनहेगन की बात हो अथवा 2015 में पेरिस समझौता हुआ हो, कभी भी विश्व समुदाय जलवायु परिवर्तन के नाम पर किए गए वादों की ओर बढ़ता हुआ नहीं दिखाई दिया, इस बीच हद तो तब हो गई जब डोनाल्ड ट्रंप के समय में अमेरिका ने पेरिस सम्मेलन की घोषणाओं से अमेरिका को अलग कर दिया था ।
जलवायु परिवर्तन के नाम पर विश्व समुदाय ने जिस प्रकार सिर्फ औपचारिक कोशिश की है ,उससे यह बात कही जा सकती है कि इधर मानवता के अस्तित्व पर प्रकृति ने सबसे बड़ा खतरा पैदा कर दिया है और वहां “न नौ मन तेल निकलेगा , ना राधा नाचेगी” की कहावत चरितार्थ हो रही है ।
इधर प्रकृति दुनिया के अधिकांश हिस्सों में अपना नृत्य (तांडव ) इस प्रकार दिखा रही है कि यदि सरकारें सोई भी रहती हैं ,तो आम आदमी को जरूर खुद को बचाने के लिए उठना होगा । सरकारों और उनकी नीति के विरुद्ध जगाना होगा ।
उत्तराखंड में विशेषकर कुमाऊं मंडल में 18 व19 अक्टूबर को जिस प्रकार 24 घंटे में 400 मिलीमीटर से अधिक वर्षा होकर 125 साल पुराना रिकॉर्ड ध्वस्त हुआ ,उसने एक बार फिर से जलवायु परिवर्तन के सवाल को गली- मोहल्ले तक पहुंचा दिया है , भारत में प्रकृति का रंग किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है, 2020-21 में प्राकृतिक आपदाओं से अकेले भारत में 85 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है जो कि भारत के कुल वार्षिक बजट का 33% है।
अब जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ आपदाओं के रूप में नहीं देखा जा रहा है ,बल्कि यह उपज और निर्माण में भी दिखाई देने लगा है।अब मौसम का चक्र 2 से 3 माह अनियंत्रित हुआ है, पूरी दुनिया में औसतन 1600 एमएम तक हो रही बारिश किसी वर्ष 1000 एम.एम से नीचे रहती है तो कभी यह 2000 एम.एम पार हो जाती है, बाढ़ रोज का किस्सा हो गई है .
इसके अलावा आसाम आदि दुनिया के चाय उत्पादक क्षेत्रों में चाय की उपज प्रति हेक्टेयर आधी हो गई है. दुनिया ने इस सदी के आखिर तक औद्योगिक युग के प्रारंभ से पहले के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का जो संकल्प रखा है ,वह 3 डिग्री से अधिक पहुंचने का अनुमान है। इसका अभिप्राय है।ग्लेशियर का तेजी से पिघलना और एक तिहाई दुनिया का समुद्र में समा जाना..।
हालांकि दुनिया के देश जलवायु परिवर्तन की दिशा में अपना योगदान देना चाहते हैं लेकिन जमीनी हकीकत इसके उलट है।
कार्बन उत्सर्जन आधारित उद्योग और ऊर्जा की व्यवस्था आज भी जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन के मामले में भारत दुनिया में चौथे नंबर है। ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक- 2017 में कार्बन उत्सर्जित करने वाले टॉप-4 देश चीन (27%), अमेरिका (15%), यूरोपीय यूनियन (10%) और भारत (7%) हैं। कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन में चार देशों की 59% और बाकी देशों की हिस्सेदारी 41% रही।
विकासशील देश अपनी विकास की तकनीकी को बदलें इसके लिए धनी देशों ने 2020 तक 100 खरब डॉलर मदद का भरोसा दिलाया था, लेकिन वह पूरा नहीं हो पाया ।
इस प्रकार झूठे और दिवास्वप्न जैसे वादों के साथ अमेरिका 2050 तक चीन 20 60 तक और भारत ने 207 0 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में जीरो बैलेंस की थ्योरी को अपनाने का वादा कर रहे हैं। लेकिन जो हालात हैं उससे यह लगता है कि देशों द्वारा किए जा रहे वादे सिर्फ वादे ही रहेंगे और प्रकृति विकास आधारित इस नई सभ्यता के बड़े हिस्से को निगल जाएगी.
दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में अब 50 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान आम हो रहा है ।भारत के 15 बाढ़ प्रभावित राज्यों की संख्या बढ़कर 23 हो गई है । चीन में हर वर्ष बेमौसम बाढ़ आ रही है दुनिया का कोई भी हिस्सा प्रकृति की मार से बचा नहीं है ।
सरकारें जिस विकास असंभव लक्ष्य को पाना चाहते हैं उससे संभवतया सरकारें जलवायु परिवर्तन की दिशा में अपने वादे पूरे ना कर पाएं ,इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक देश का नागरिक अपनी जीवनशैली में आंशिक परिवर्तन करके भी ग्रीनहाउस गैसेस के उत्सर्जन को कम करने में बड़ा योगदान दे सकता है ।
जैसे भारत में दीपावली के बाद एनसीआर क्षेत्र में एयर पॉल्यूशन इंडेक्स 300 के पार चला जाता है और पटाखों की तोहमत पराली पर मढ दी जाती है कम से कम यहां नागरिक अपना धर्म निभा कर हर साल पटाखों की मात्रा कम कर सकते हैं यदि हर घर से औसतन एक ए.सी भी कम हो जाए तो भी हम ग्लास्गो सम्मेलन की सफलता की कामना कर सकते हैं ।
अभिप्राय है यह है कि पर्यावरण के सवाल को जो कि मानवता के भविष्य का प्रश्न है, हम सिर्फ सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ सकते ।
(प्रमोद शाह के फेसबुक पेज https://www.facebook.com/pramod.sah.31 से साभार)