वसंत प्यार का मौसम है। दुनिया की तमाम संस्कृतियां अपने युवाओं को इस मौसम में प्रेम की मर्यादित अभिव्यक्ति का अवसर देती है। इसका आरंभ हमारे अपने ही देश में हुआ था। प्राचीन भारत में बसंत उत्सव की लंबी परंपरा रही है जिसमें प्रेमी जोड़े एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम और आकर्षण का इज़हार करते थे।
कथित सभ्य समाजों में धीरे-धीरे वह परंपरा तो विलुप्त हो गई, लेकिन हमारी कई आदिवासी संस्कृतियां अपने युवाओं को प्रेम की अभिव्यक्ति का यह अवसर आज भी प्रदान करती हैं। यह एक स्वस्थ और यौन कुंठारहित समाज की निशानी है।
युवाओं को अपनी रूमानी भावनाओं की अभिव्यक्ति का ऐसा ही अवसर पश्चिम से आयातित ‘वैलेंटाइन डे’ देता है। बाज़ार ने इसका विस्तार कर अब ‘वैलेंटाइन वीक’ बना दिया है।
बाज़ार को बीच से हटाकर देखें तो प्रेम का संदेश दुनिया के किसी कोने से आए, नफरतों से सहमें इस दौर में ताज़ा हवा के झोंके की तरह ही है। दुर्भाग्य से हमारे देश में प्रेम का विरोध भी बहुत है।
यहां धर्मों के स्वघोषित ठेकेदारों का मानना है कि प्रेम उनकी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। ये वे लोग हैं जिन्हें लड़ाई-झगड़े, मारपीट, और सांप्रदायिक दंगों के रूप में नफ़रतो के सार्वजनिक प्रदर्शन से कोई आपत्ति नहीं।
प्रेम की अभिव्यक्ति इनकी नज़र में अपराध है। जिन संस्कृतियों में राधा-कृष्ण तथा लैला-मजनू का प्रेम आदर्श माना जाता है, उनमें प्रेम को लेकर लोगों में इस क़दर प्रतिरोध हैरान करता है। प्रतिरोध भी ऐसा जिसकी अभिव्यक्ति हत्या तक में ज़ायज मानी जाने लगी है।
प्रेम की तमाम वर्जनाएं और अवरोध मनुष्य-निर्मित हैं। प्रकृति ने तो प्रेम, स्वप्न और उड़ने की अनंत इच्छाओं का ही सृजन किया है। प्रेम का विरोध प्रेम से वंचित कुंठित और अभागे लोग ही कर सकते हैं।
इस देश में नफ़रत करने वाले लोगों के लिए घरों और सार्वजनिक स्थलों से लेकर देश की संसद तक में जगह सुरक्षित है। प्यार करने वाले आज अपने लिए एक कोना तलाश रहे हैं। इस पृथ्वी पर क्या प्रेम के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए? प्रेम अगर है तो यह हर हाल में अभिव्यक्त होगा। आप इसे रोकेंगे तो यह असंख्य कुंठाओं और हज़ार विकृतियों में सामने आएगा। विरोध करना है तो नफ़रतों का विरोध करें! प्रेम एक ख़ुशबू है और ख़ुशबू को बांध लेना किसी के बस की बात नहीं।
ध्रुव गुप्ता के फेसबुक पेज से साभार